Kabir Ke Dohe | संत कबीर के दोहे हिंदी शब्दार्थ सहित

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Kabir Ke Dohe

जब भी हम दोहों के बारे में सुनते है तो सबसे पहले ही Kabir Ke Dohe ध्यान आते है. कबीर दास का साहित्य में योगदान बेहद ही अनमोल है जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता. कबीर के दोहे (Kabir Ke Dohe) , भजन , एवम् अनेक रचनाये है जो हम सभी के जीवन में उपयोगी है.

आज हम आप सभी के लिये लाये है कुछ Kabir Ke Dohe ( कबीर के दोहे ) जो मुश्किल घड़ियों में हमारी काफी मदद कर सकते है. कबीर के दोहे जिन्दगी जीने का सुन्दर तरीका सीखा सकते है. या यूँ कहे Kabir Ke Dohe (कबीर के दोहे) हमारे गलत दिशा में बढ़ते कदमो को सही दिशा दिखाने में भी अहम् साबित हो सकते है.

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय ।
 सारसार को गहि रहै थोथा देई उड़ाय ।

Kabir Ke Dohe | अर्थ : कबीर दास जी का कहना है की व्यक्ति को सूप की तरह होना चाहिये जिस प्रकार सूप अपने अन्दर अनाज तो रख लेता है लेकिन अन्य चीजो को बाहर कर देता है. यानी हमारे चारो ओर गंदगी है तो उस गंदगी से हम अपने मन को गंदा क्यों करे , हमे अपने मन को हमेशा साफ़ रखना चाहिये.

तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय ।
 सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए ।

अर्थ : हम सभी लोग प्रतिदिन अपने तन को तो साफ़ करते है यानी मुह हाथ धोते नहाते तो हैं लेकिन अपने मन को साफ़ करना हमेशा भूल जाते है. जो व्यक्ति अपने मन को साफ़ रखता है वही हर मायने में सच्चा इंसान बन पाता है.

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
 कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ।

Kabir Ke Dohe | अर्थ : कबीरा कहते है , मोती और लकड़ी की यह माला फेरते फेरते तो सालों बीत गये लेकिन मन पर जमी मैल आज तक नही हटी.

नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए ।
 मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए ।

अर्थ : कबीर दास जी कहते है , ऐसे नहाने धोने से क्या फायदा है जो मन साफ़ नहीं हो. मछली भी हमेशा पानी में रहती है लेकिन कितना भी उसे धो लेने पर उसकी बदबू खत्म नही होती.

ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग ।
 प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत ।

अर्थ : कबीर दास जी का कहना है , मोटी मोटी किताबे पढ़ कर और रट्टा मार कर कोई ज्ञानी नहीं बना है. ज्ञानी वही है जिसने प्रेम शब्द को जान कर सभी को अपने सच्चे मन से मान लिया है.

ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग ।
 प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत ।

Kabir Ke Dohe | अर्थ : दास जी का कहना है , जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में कभी अच्छे लोगो की संगति नहीं की या कभी कोई अच्छा काम नही किया उसका जीवन बेकार है या यूँ कहे , प्रेम के बिना मनुष्य का जीवन पशु की भांति है. जो व्यक्ति सच्चे मन से भक्ति नहीं करता उसके हृदय में कभी प्रभु का वास नहीं हो सकता.

माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे ।
 एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।

अर्थ : कबीर दास जी मिटटी और कुम्हार के उधाहरण को लेकर समझाते है की , मिटटी कुम्हार से कहती है तुम आज मुझे इस प्रकार अपने सांचे में ढालने की कोशिश कर रहे हो लेकिन एक दिन ऐसा भी आयेगा जब तुम खुद भी इस मिटटी में ही मिल जाओगे , मैं तुम्हे रौंदूगी.

यानी , हर समय हम जो अपनी अन्य बातो को लेकर चिंता करते रहते है , लालच करते है वो सब व्यर्थ ही है हमारे साथ कुछ नही जाना है और हमारे पीछे सिर्फ हमारे कर्म ही रह जायेगे.

कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये,
 ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये ।

Kabir Ke Dohe | अर्थ : कबीरा कहते है , जब हम पैदा होते हैं तो हमे रोता देख यह दुनिया ख़ुशी मनाती है. अपनी जिन्दगी में ऐसे काम करो की जब तुम जाओ तो तुम हंस रहे हो और दुनिया तम्हे खोने का दुःख मना रही हो.

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ, 

मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।

अर्थ : जीवन में जो लोग अपने काम को लेकर इमानदारी से प्रयास करते रहते है वह अपनी मंजिल को पाने में एक न एक दिन सफल हो ही जाते है. जिस प्रकार गोताखोर गहरे पानी में जाता है तो कुछ न कुछ लेकर ही वापिस आता है. ऐसे ही प्रयास करते रहना ही सफलता की ओर पहला कदम है.

दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त, 

अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।

अर्थ : कबीर दास जी कहते है की , मनुष्य की प्रकृति होती है की वह दूसरो के दोष देख कर हंसता है लेकिन अपने अन्दर छुपे उन दोषों को वह कभी नही देखता जिनका कोई अंत नहीं है. इसलिए दूसरो के बारे में कुछ भी कहने या टिप्पणी करने से पहले हमे अपने अन्दर भी झांकना चाहिये.

जाति न पूछो साधू की, पुच लीजिए ज्ञान, 

मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।

Kabir Ke Dohe | अर्थ : कबीर दास जी कहते है , किसी भी सज्जन या फिर ज्ञानी व्यक्ति से उसकी जाती पूछने से अच्छा है उस से ज्ञान की बाते कीजिये उसके ज्ञान को समझिये. मैदान में तलवार की कीमत होती है उसपर चड़े खोल को कोई नही पूछता.

धीरे – धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय, 

माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।

अर्थ : कबीर दास जी अपनी इन पक्तियों के माध्यम से कहना चाहते है की , धीरज रखने से सभी काम का फल मिलता है जिस प्रकार आम के पेड़ को रोज पानी देने और आम की राह तकने से उसी समय फल नही आ जाते उसी प्रकार सभी परिणाम हमे सही समय पर ही हासिल होते है.

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय, 

जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

अर्थ : कबीर दास जी कहते है , इस दुनिया में जब मै बुरे को ढूँढने निकला तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला लेकिन जब मैंने अपने अन्दर झाँका तो मुझे मेरे अन्दर की कमियाँ दिखाई दी और एहसास हुआ की मुझसे बुरा और कोई मिलेगा ही नही.

बार-बार तोसों कहा, सुन रे मनुवा नीच। 

बनजारे का बैल ज्यों, पैडा माही मीच।

Kabir Ke Dohe | अर्थ : कबीर दास जी कहते है , हे लालची मनुष्य तुझ से मै बार बार कहता हूँ क्यों इन सभी झंझटो में पड़ा है जिस प्रकार व्यापारी का बैल बीच रस्ते में मर जाता है उसी प्रकार एक दिन तू भी अचानक मर जायेगा.

जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय। 

जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय।

अर्थ : कबीर दास जी कहते है , मनुष्य जैसा अन्न खायेगा वैसा हो जायेगा यानी मनुष्य की जैसी संगति होगी वह उसी प्रकार ढलता चला जयेगा. इसलिए अपनी संगती और आस पास के वातावरण को हमेशा ही अच्छा रखे ताकि मन शुद्ध रहे.

तो यह थे कुछ Kabir Ke Dohe , आशा करते है आप को यह पसंद आये होंगे. यदि आपके पास कुछ अन्य Kabir Ke Dohe है जिन्हें आप हमारे साथ साझा करना चाहते है तो नीचे comment box में लिख सकते है.

Source : Youtube

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